प्रेम
प्रेम हर स्थिति में केवल प्रेम ही होता है। हम इसको अलग-अलग संबंध के साथ विभाजित नहीं कर सकते। प्रेम हर संबंध में समान होता है। संबंधों के वैविध्य के साथ परिवर्तित होने वाला विशेष भाव चाहे कुछ भी हो, प्रेम नहीं हो सकता। माता के प्रति जो विशेष भाव है वो आदर हो सकता है, बहन के प्रति जो विशेष भाव है वो स्नेह हो सकता है, प्रेमिका के प्रति जो विशेष भाव है वो वासना हो सकती है, पुत्री के प्रति जो विशेष भाव है वो अनुराग हो सकता है। इन सबको एक ही अर्थ में नहीं समेटा जा सकता। ये सारे भाव संबंध-प्रति-संबंध बदलते रहते हैं, लेकिन प्रेम जहाँ भी होगा उतना ही विराट होगा, उतना ही भव्य होगा। प्रेम परमात्मा से घटित होगा तो भी उसका स्पंदन ठीक वैसा ही होगा जैसा प्रेमिका, माता, पिता, बहन या पत्नी के संबंध में! इसी कारण मीरा का प्रेम आध्यात्म हो गया। क्योंकि जहाँ प्रेम संबंधों की सीमाओं को पीछे छोड़ देता है वहाँ उसके साथ कोई विशेषण लगाने कि आवश्यकता ही नहीं रह जाती। वह स्वत: ही पावन हो जाता है, या यूँ कहा जाये कि प्रेम तो होता ही निश्छल है, इसी कारण उसको संबंधों की या सामाजिक परम्पराओं की कोई सीमा रेखा दिखाई ही नहीं देती। छोटे बालक की खिलखिलाहट की तरह प्रेम बिल्कुल पवित्र होता है....... अनहद नाद कि तरह...... विराट, किन्तु अदृश्य भी, इसको देखने के लिए स्वयं को भी उतना ही विराट बनाना पड़ता है। अंगुलियों से हिमगिरि को मापना कैसे संभव है???
भावनाएं
भावनाएं ऊर्जा की तरह होती हैं,
इनका सृजन अथवा विध्वंस नहीं किया जा सकता,
ये केवल रूप परिवर्तन करती हैं,
इनका नकारात्मक होना या सकारात्मक होना परिस्थितियों पर निर्भर करता है,
जीवन के सभी पक्ष इनसे संचालित हैं,
इनसे रहित मनुष्य मृत होता है.....
इनका सृजन अथवा विध्वंस नहीं किया जा सकता,
ये केवल रूप परिवर्तन करती हैं,
इनका नकारात्मक होना या सकारात्मक होना परिस्थितियों पर निर्भर करता है,
जीवन के सभी पक्ष इनसे संचालित हैं,
इनसे रहित मनुष्य मृत होता है.....
समाज से विमुख
सत्य और असत्य के मध्य एक महीन सी रेखा होती है। 'सामाजिक प्राणी' सारा जीवन इस रेखा के इर्द-गिर्द ही जीते हैं। ज्यों-ज्यों इस रेखा से मनुष्य की दूरी बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों मनुष्य असामाजिक होने लगता है। बहुत थोड़े लोग ही इस रेखा से दूर होने की प्रक्रिया शुरू कर पाते हैं। जो व्यक्ति इस यात्रा को असत्य की दिशा में शुरू करता है वो अपराधी कहलाने लगता है, और जिसकी दिशा सत्य की ओर होती है वो सन्यासी कहलाने लगता है। दरअसल ये दिशा ही निर्धारित करती है कि हमारी यात्रा स्वाधुत्व की ओर है या साधुत्व की ओर। लेकिन एक बात इन दोनों ही यात्राओं में समान होती है, और वह ये कि दोनों ही दशाओं में मनुष्य के मन से समाज और सामाजिक परम्पराओं का भय समाप्त होता जाता है।
अपनत्व
अपनत्व के कुछ अजीब से अधिकार होते हैं, जिन्हें साधारण बुद्धि के लोग हठ समझ लेते हैं। किन्तु वास्तव में ये अधिकार ही संबंधों की प्रगाढ़ता के मापदंड होते हैं।
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