समाज से विमुख

सत्य और असत्य के मध्य एक महीन सी रेखा होती है। 'सामाजिक प्राणी' सारा जीवन इस रेखा के इर्द-गिर्द ही जीते हैं। ज्यों-ज्यों इस रेखा से मनुष्य की दूरी बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों मनुष्य असामाजिक होने लगता है। बहुत थोड़े लोग ही इस रेखा से दूर होने की प्रक्रिया शुरू कर पाते हैं। जो व्यक्ति इस यात्रा को असत्य की दिशा में शुरू करता है वो अपराधी कहलाने लगता है, और जिसकी दिशा सत्य की ओर होती है वो सन्यासी कहलाने लगता है। दरअसल ये दिशा ही निर्धारित करती है कि हमारी यात्रा स्वाधुत्व की ओर है या साधुत्व की ओर। लेकिन एक बात इन दोनों ही यात्राओं में समान होती है, और वह ये कि दोनों ही दशाओं में मनुष्य के मन से समाज और सामाजिक परम्पराओं का भय समाप्त होता जाता है।

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