आत्मविश्वास

बचपन में एक लघुकथा सुनी थी
आज सुबह-सुबह किसी ने वही कथा एसएम्एस के माध्यम से प्रेषित की....
सो, एक अच्छी सीख पुनः ताज़ा हो गयी....
"किसी गाँव में सूखा पड़ा। गाँव वालों ने तय किया कि सब मिलकर बारिश के लिए दुआ मांगेंगे। नियत तिथि पर सारा गाँव एक मैदान में एकत्रित हुआ। सब परमात्मा से वर्षा के लिए दुआ मांगने आये थे, लेकिन केवल एक लड़का ऐसा था जो छतरी साथ ले कर आया था.......।"

कमियाँ कहाँ हैं...

हमारी दृष्टि और हमारा स्वभाव यह तय करता है कि बाह्य तत्व हम पर क्या प्रभाव डालें। इसलिए बेहतर यही है कि यदि कहीं कुछ अखरने लगे तो कमियाँ बाहर न टटोली जाएँ। स्वयं को बदलना ही सबसे बेहतर और सटीक उपाय है। यहाँ ये बात विशेष रुप से ध्यातव्य है कि जो धूप बर्फ़ को गलाने की दोषी कही जाती है, उसी का प्रयोग कर कुम्हार अपने बर्तनों को सख्त करता है। सो, धूप को दोष देने से बेहतर है, हम यह निर्धारित करें कि हम बर्फ़ हैं या गीली मिट्टी।

शुभ रात्रि

रात सदैव रात ही होती है, उसका शुभ और अशुभ होना इस पर निर्भर करता है कि हम दिन भर में कैसे काम करते हैं....

धुन

कुछ गीत बहुत सी धुनों के साथ सुमेलित हो जाते हैं, लेकिन कुछ धुनें किसी गीत के साथ मेल नहीं खाती। लेकिन कोई भी धुन तभी स्मरण में जीवित रहती है जब उसका कोई गीत हो....

रिश्ते में कोई एक....

हर रिश्ते में कोई एक ही ऐसा होता है..... जो दूसरे की ख़ुशी के लिए क़दम-क़दम पर अपनी भावनाओं से समझौता करता है
.....जो उस रिश्ते को बड़ी से बड़ी कीमत पर भी सहेज कर रखना चाहता है
.....जो उस रिश्ते से मिलने वाली एक मुस्कान के लिए हर दर्द को अपनाता है
.....जो उस रिश्ते को दिल कि गहराइयों से महसूस करता है
...... लेकिन यही एक तो उस रिश्ते को ईमानदारी से जी पाता है ना !!!

भावना

भावना यदि पवित्र हो तो शब्द वन्दनीय हो जाते हैं

अकेलापन

अकेलापन दूर करने के लिए यह कतई ज़रूरी नहीं है कि कोई अपना आपके पास हो। यदि कोई दूर होकर भी आपका हाल-चाल पूछ ले तो कई घंटों का अकेलापन दूर हो सकता है। इस एहसास को जीने के बाद ही समझा जा सकता है कि लोग प्रेम-पत्र बार-बार क्यों पढ़ते हैं.....

क्या ज़रूरी है...

यह ज़रूरी नहीं है कि हम अपने हर रिश्ते को हर एक सत्य बतायें, लेकिन यह नितांत आवश्यक है कि रिश्तों में जो कुछ बताया जाये वह पूर्णतया सत्य हो!

मौन

जब हम मौन होते हैं तो लोग हमें सुनने के लिए उत्सुक होने लगते हैं, उनकी यही उत्सुकता हमें कुछ कहने के लिए उकसाती भी है, लेकिन यह भी सत्य है कि मौन के क्षणों में ही लोगों को अधिक स्पष्टता से सुना जा सकता है....

शब्दातीत

अचानक कोई याद आ गया। मन में कुछ पिघला। एक अजीब सी मुस्कान अधरों पर बिखर गयी। नयन-कोर पर दो अश्रुकण अटक कर रह गए और फिर देर तक आंखें बंद कर, दूर बैठे किसी अपने की स्मृतियों में डूब गया मेरा मन। क्या इसी क्षण को शब्दातीत आनंदानुभूति कहते हैं....

इक छोटी सी बात...

पिछले दिनों मैंने एक अनोखा अनुभव किया। मुझे दो मित्रों के परिवारों के साथ उनकी ही गाड़ियों में यात्रा करनी पड़ी। दोनों ही स्थितियों में मेरा परिचय परिवार के मुखिया से ही था। दोनों ही स्थितियों में गाड़ी को मेरा मित्र चला रह था। दोनों ही मित्र कवि है। दोनों ही स्थितियों में मैं यदा-कदा मिलने वाले अतिथि की भूमिका में था। अंतर इतना था कि एक मित्र जो विश्वविद्यालय में प्रवक्ता है, उसकी धर्मपत्नी कामकाजी महिला है, और दूसरा मित्र जो व्यापारी है उसकी धर्मपत्नी गृहिणी है। पहले मित्र ने यात्रा के दौरान अपनी पत्नी को अगली सीट पर अपने साथ बैठाया और दूसरे मित्र ने पत्नी को पिछली सीट पर बैठाकर मुझे अपने साथ बैठाया। यद्यपि दोनों ही मित्रों की आयु और वैवाहिक जीवन की आयु लगभग समान है। क्या मेरा आशय आप समझ सके?

आगे की सुध लेय

किसी भी स्थिति में यदि हम विवाद को टालना चाहें तो उसके तो तरीके हो सकते हैं.....
"भाड़ में जा" या "चल छोड़"
इन दोनों ही वाक्यांशों का एक सकारात्मक प्रभाव यह होता है कि यदि किसी अपेक्षा कि उपेक्षा होने पर इनमें से किसी का भी उच्चारण कर लिया जाये तो घटनाक्रम के घटित होने के पश्चात हमारी ऊर्जा किसी पश्चाताप अथवा शोक में व्यर्थ नहीं होती।
लेकिन इसका निर्णय मनुष्य की प्रवृत्ति पर निर्भर करता है कि वह इन दोनों में से किस का प्रयोग करना चाहता है। क्योंकि अंतत: स्वयं को घटना के प्रभाव से मुक्त करने के लिए "चल छोड़" बोलना ही पड़ता है। सो बेहतर यही है कि जितनी जल्दी हो सके......
बीती ताहि बिसार के आगे की सुध लेय

प्रेम

प्रेम हर स्थिति में केवल प्रेम ही होता है। हम इसको अलग-अलग संबंध के साथ विभाजित नहीं कर सकते। प्रेम हर संबंध में समान होता है। संबंधों के वैविध्य के साथ परिवर्तित होने वाला विशेष भाव चाहे कुछ भी हो, प्रेम नहीं हो सकता। माता के प्रति जो विशेष भाव है वो आदर हो सकता है, बहन के प्रति जो विशेष भाव है वो स्नेह हो सकता है, प्रेमिका के प्रति जो विशेष भाव है वो वासना हो सकती है, पुत्री के प्रति जो विशेष भाव है वो अनुराग हो सकता है। इन सबको एक ही अर्थ में नहीं समेटा जा सकता। ये सारे भाव संबंध-प्रति-संबंध बदलते रहते हैं, लेकिन प्रेम जहाँ भी होगा उतना ही विराट होगा, उतना ही भव्य होगा। प्रेम परमात्मा से घटित होगा तो भी उसका स्पंदन ठीक वैसा ही होगा जैसा प्रेमिका, माता, पिता, बहन या पत्नी के संबंध में! इसी कारण मीरा का प्रेम आध्यात्म हो गया। क्योंकि जहाँ प्रेम संबंधों की सीमाओं को पीछे छोड़ देता है वहाँ उसके साथ कोई विशेषण लगाने कि आवश्यकता ही नहीं रह जाती। वह स्वत: ही पावन हो जाता है, या यूँ कहा जाये कि प्रेम तो होता ही निश्छल है, इसी कारण उसको संबंधों की या सामाजिक परम्पराओं की कोई सीमा रेखा दिखाई ही नहीं देती। छोटे बालक की खिलखिलाहट की तरह प्रेम बिल्कुल पवित्र होता है....... अनहद नाद कि तरह...... विराट, किन्तु अदृश्य भी, इसको देखने के लिए स्वयं को भी उतना ही विराट बनाना पड़ता है। अंगुलियों से हिमगिरि को मापना कैसे संभव है???

भावनाएं

भावनाएं ऊर्जा की तरह होती हैं,
इनका सृजन अथवा विध्वंस नहीं किया जा सकता,
ये केवल रूप परिवर्तन करती हैं,
इनका नकारात्मक होना या सकारात्मक होना परिस्थितियों पर निर्भर करता है,
जीवन के सभी पक्ष इनसे संचालित हैं,
इनसे रहित मनुष्य मृत होता है.....

समाज से विमुख

सत्य और असत्य के मध्य एक महीन सी रेखा होती है। 'सामाजिक प्राणी' सारा जीवन इस रेखा के इर्द-गिर्द ही जीते हैं। ज्यों-ज्यों इस रेखा से मनुष्य की दूरी बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों मनुष्य असामाजिक होने लगता है। बहुत थोड़े लोग ही इस रेखा से दूर होने की प्रक्रिया शुरू कर पाते हैं। जो व्यक्ति इस यात्रा को असत्य की दिशा में शुरू करता है वो अपराधी कहलाने लगता है, और जिसकी दिशा सत्य की ओर होती है वो सन्यासी कहलाने लगता है। दरअसल ये दिशा ही निर्धारित करती है कि हमारी यात्रा स्वाधुत्व की ओर है या साधुत्व की ओर। लेकिन एक बात इन दोनों ही यात्राओं में समान होती है, और वह ये कि दोनों ही दशाओं में मनुष्य के मन से समाज और सामाजिक परम्पराओं का भय समाप्त होता जाता है।

अपनत्व

अपनत्व के कुछ अजीब से अधिकार होते हैं, जिन्हें साधारण बुद्धि के लोग हठ समझ लेते हैं। किन्तु वास्तव में ये अधिकार ही संबंधों की प्रगाढ़ता के मापदंड होते हैं।