आख़िर मेरी ग़लती क्या है?

हर संबंध की एक सीमा होती है। समर्पण जब प्रेम के चरम पर पहुँचता है तो वह इस सीमा को लाँघ, कुछ अपेक्षाएँ पाल लेता है, यह मानवीय स्वभाव है। लेकिन ऐसे में अक़्सर आराधक अपने आराध्य के लिये समस्या बनने लगता है। यही वह समय होता है जब आराधक का हाथ पकड़ आराध्य तेज़ी से भागते हुए अचानक झटक हाथ छुड़ाने के लिये बेचैन हो उठता है।
आराधक इस परिवर्तन को समझ नहीं पाता और तेज़ भागते हुए लगे झटके के कारण मुँह के बल धराशायी हो जाता है। वो बार-बार उठने की क़ोशिश करता है और हर बार लपक कर अपने आराध्य का हाथ थामने का प्रयास करने लगता है। उसके मन में निरंतर यह ग्लनि-बोध होता है कि उसने इतनी तेज़ गति में अपने आराध्य का हाथ छोड़ कर कोई अपराध कर दिया है, उधर आराध्य उसके प्रयासों से और अधिक कुपित होने लगता है।
धीरे-धीरे आराध्य की भंगिमाएँ वैभत्स्य की ओर बढ़ने लगती हैं, और आराधक के मन में एक ही प्रश्न गूंजने लगता है कि आख़िर मेरी ग़लती क्या है???

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